तुम्हारा निर्णय कभी पूर्ण नहीं होता
निर्णय सदा अंश का ही हो सकता है, पूर्ण का नहीं। निर्णय का अर्थ है कि कोई द्वंद्व था, तुम्हारा एक हिस्सा कह रहा था कि ऐसा करो और एक हिस्सा कह रहा था कि ऐसा मत करो इसीलिए निर्णय की जरूरत पड़ी। तुम्हें निर्णय करना पड़ा, तर्क-वितर्क करना पड़ा और एक हिस्से को दबाना पड़ा। निर्णय का यही अर्थ होता है। जब तुम्हारी पूर्णता प्रकट होती है तो निर्णय की जरूरत नहीं होती, कोई और विकल्प ही नहीं होता।
एक बुद्ध पुरुष स्वयं में पूर्ण होता है, पूर्णतया शून्य होता है। तो जो भी होता है उस पूर्णता से आता है, किसी निर्णय से नहीं। यदि वह ही कहता है तो वह कोई उसका चुनाव नहीं है उसके सामने न कहने का कोई विकल्प ही नहीं था। ’हा उसके पूरे अस्तित्व का प्रतिसंवेदन है। यदि वह न कहता है तो न उसके पूरे अस्तित्व का प्रतिसंवेदन है। यही कारण है कि बुद्ध पुरुष कभी पश्चात्ताप नहीं कर सकता। तुम सदा पश्चात्ताप करोगे। तुम जो भी करो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम जो भी करो, पछताओगे। तुम किसी स्त्री से विवाह करना चाहते हो, यदि ही का निर्णय लोगे तो पछताओगे और न का निर्णय लोगे तो भी पछताओगे। क्योंकि तुम जो भी निर्णय लेते हो वह आशिक निर्णय है, दूसरा हिस्सा सदा ही उसके विरुद्ध रहता है। यदि तुम निर्णय लो कि ही मैं इस स्त्री से विवाह करूंगा।’ तो तुम्हारा एक हिस्सा कहेगा, अरे ऐसा मत करो पछताओगे।’ तुम पूरे नहीं हो।
जब कठिनाइयां आती हैं... और कठिनाइयां तो आएंगी ही क्योंकि दो बिलकुल भिन्न लोग एक साथ रहने लगे। झगड़े होंगे मालकियत का संघर्ष चलेगा, राजनीति चलेगी, तब तुम्हारा दूसरा हिस्सा कहेगा, देखा! मैंने क्या कहा था? मैं बार-बार कह रहा था कि ऐसा मत करो और तुम करके बैठ गए।’ और ऐसा नहीं है कि अगर तुमने दूसरे हिस्से की मानी होती तो तुम न पछताते। नहीं! पश्चात्ताप तो होता ही, क्योंकि तब तुमने किसी और स्त्री से विवाह किया होता और उससे झगड़ा-फसाद हुआ होता। तब दूसरा हिस्सा कहता, श्मैं तो पहले ही कह रहा था कि पहले वाली स्त्री से विवाह कर लो। तुम मौका चूक गए। एक स्वर्ग हाथ से निकल गया और नर्क से तुमने शादी कर ली।’ चाहे कुछ भी हो, तुम पछताओगे क्योंकि तुम्हारा निर्णय कभी पूर्ण नहीं होता। सदा एक अंश के विपरीत निर्णय होता है, वह अंश बदला लेगा। तो तुम चाहे जो भी निर्णय लो अच्छा करो तो पछताओगे और बुरा करो तो पछताओगे।
अगर तुम अच्छा करोगे तो तुम्हारे
मन का एक हिस्सा सोचेगा कि एक मौका हाथ से निकल गया। -बुरा करोगे तो ग्लानि से भर जाओगे। बुद्ध पुरुष कभी नहीं पछताता। सच में तो वह कभी पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं। पीछे देखने को कुछ है ही नहीं। जो भी होता है उसकी समग्रता से होता है। तो पहली बात समझने की यह है कि वह कभी चुनाव नहीं करता। चुनाव उसके शून्य में घटता हैय वह कभी निर्णय नहीं करता। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अनिर्णय में होता है। वह पूर्णतरू निश्चित होता है लेकिन कभी निर्णय नहीं करता। मुझे समझने की कोशिश करो। निर्णय उसके शून्य में घटित होता है। यही उसके पूरे प्राणों की आवाज है। वहां और कोई स्वर नहीं होता।