पुरूषत्व, अकड और अंहकार

पुरूषत्व, अकड और अंहकार


पागलखानों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है, स्त्रियों की बहुत कम। कारागृहों में पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा है, स्त्रियों की न के बराबर। मानसिक रोग पुरुषों को जितनी सरलता से पकड़ते हैं, स्त्रियों को नहीं। पुरुष जितनी आत्महत्याएं करते हैं, स्त्रियां नहीं-हालांकि स्त्रियां कहती बहुत हैं-करती नहीं। स्त्रियां अक्सर कहती रहती हैं-आत्महत्या कर लेंगे। कभी-कभी गोली भी खाती हैं, लेकिन गिनती की-सुबह ठीक हो जाती हैं। मरना नहीं चाहतीं। अगर मरने की बात भी करती हैं, तो वह भी जीवन की किसी गहन आकांक्षा के कारण-जीवन को जैसा चाहा था, वैसा नहीं है। इसलिए मरने को भी तैयार हो जाती है, लेकिन मरना चाहती नहीं। स्त्री जीवन से बड़ी गहरी बंधी है।
पुरुष जरा सी बात में मरने को तैयार हो जाता है। फिर जब पुरुष कुछ करता है तो पूरी सफलता से ही कहता है, फिर वह मरता ही है। फिर वह ऐसा नहीं करता कि अधूरे उपाय करे, वह गणित उसका पूरा है, वैज्ञानिक है वह मरने का सारा इंतजाम करके मरता है। स्त्री मरने की बात करे, बहुत ध्यान मत देना कोई चिता करने की बात नहीं। पुरुष मरने की बात करे, थोड़ा सोचना। अक्सर तो ऐसा होता है पुरुष मर जाएगा, मरने की बात न करेगा। स्त्री मरने की बात करती रहेगी, और जीती रहेगी।
स्त्रियों को शारीरिक बीमारियां भी पुरुषों से कम होती हैं, क्योंकि अगर मन थोड़ा शांत और स्वस्थ हो तो शरीर स्वस्थ और शांत होता है। स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा जीती हैं, पांच साल औसत ज्यादा। अगर पुरुष सत्तर साल जीएगा, तो स्त्रियां पचहत्तर साल जीएगी। इसलिए मैं कहता हूं कि विवाह की व्यवस्था में हमें फर्क कर देना चाहिए। अभी हम कहते हैं कि लड़का तीन-चार साल बड़ा होना चाहिए लड़की से, यह बिलकुल उलटा है। लड़की बड़ी होनी चाहिए-चार-पांच साल बड़ी, लड़के से। दोनों करीब-करीब साथ-साथ मरेंगे, नहीं तो विधवाओं से पृथ्वी भर जाती है। तुम पाओगे, विधुर व्यक्ति कम पाओगे। विधवाएं ज्यादा पाओगे। जगह-जगह मंदिरों में बैठी हुई मिलेंगी तुम्हें। उसका कारण है कि वे पांच-सात ज्यादा जीने वाली हैं। उचित यह होगा कि लड़कियां पांच-सात साल बड़ी हों, तो मरने के वक्त दो चार महीने के फासले पर दोनों विदा हो जाएंगे, ठीक होगा जीवन।
लेकिन पुरुष की अकड़ है। वह विवाह में भी उम्र ज्यादा रखना चाहता है, ताकि बड़ा मालूम पड़े। वह हर चीज में उसे बड़ा होना चाहिए, उम्र में भी बड़ा होना चाहिए, हालांकि बड़ा वह कभी हो नहीं पाता कितनी ही उम्र हो जाए। जब भी वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, तो वह उसी स्त्री में मां को खोजने लगता है, बड़ा वह हो नहीं पाता। छोटी से छोटी बच्ची भी बड़ी होती है, क्योंकि छोटी बच्ची भी जो पहला खेल खेलती है वह मां बनने का खेलती है, इससे कम का उसका काम नहीं। छोटे गङ्ढों को सजाती है, बिठाती है, मां बनती है। छोटी से छोटी बच्ची मां है, और बूढ़े से बढ़ा व्यक्ति भी बच्चा होता है-पुरुष बच्चा होता है।
लेकिन अकड़, अहंकार! तो बड़ा होना चाहिए हर बात में। स्त्री लंबी हो तो दूल्हे के मन को दुख लगता है, बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है, पुरुष स्त्री से लंबा ही होना चाहिए। हर चीज में उसे बड़ा होना चाहिए। कहीं हीनता की कोई ग्रंथि काम कर रही है पुरुष में। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह हीनता की ग्रंथि यह है कि स्त्री जीवन को जन्म देने में समर्थ है और पुरुष समर्थ नहीं है, यह हीनता की ग्रंथि है। इससे एक इनफिरिआरिटी काम्प्लेक्स है। स्त्री बच्चे को पैदा कर सकती है, जीवन को जन्म दे सकती है। परमात्मा उसका सीधा उपयोग करता है, वह सीधी माध्यम है। पुरुष सांयोगिक मालूम होता है। पुरुष को विदा किया जा सकता है, एक इंजेक्शन भी पुरुष का काम कर देगा। उसकी कोई इतनी अनिवार्यता नहीं है। लेकिन मां को विदा नहीं किया जा सकता, क्योंकि मां भीतर से जन्मायोगी-उसका खून, उसकी हड्डी, मांस-मज्जा, नये जन्म को निर्मित करेगा--नये जीवन को गति देगा। स्त्रियां बड़ी तृप्त मालूम होती हैं, और जब वे मां बन जाती हैं तब तो बड़ी तृप्ति उनको घेर लेती है, क्योंकि एक अर्थ में वे परमात्मा का उपकरण बन गयीं।