अभिनय समझो!
तुम पति हो, इसको अभिनय समझो। पत्नी छोड्कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। सिर्फ अभिनय समझो। और पति का काम जितनी कुशलता से कर सको, कर दो। तुम पत्नी हो, पत्नी का काम कुशलता से कर दो। अभिनय है, कुशलता से करना है। लिपायमान मत हो।
किसी को कहने की भी जरूरत नहीं है। किसी को पता चलने की भी जरूरत नहीं है। तुम भीतर सरक जाओ। सब काम वैसा ही चलता रहे। हाथ उठेंगे, बुहारी लगेगी, पति आएगा, चरण धोए जाएंगे पति आएगा, बाजार से फूल ले आएगाय सब काम वैसे ही चलेगा। कहीं कोई भेद न होगा। कहीं रत्तीभर भेद की जरूरत नहीं है। भीतर कुछ सरक जाएगा। भीतर से कोई हट जाएगा। भीतर घर खाली हो जाएगा। कर्ता वहां नहीं रहा।
और जब कर्ता भीतर नहीं रह जाता, तो ऐसा सन्नाटा छा जाता है जीवन में, कि कोई भी चीज उस सन्नाटे को तोड़ती नहीं। ऐसी गहन शांति उतर आती है, कि सारा संसार कोलाहल करता रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। तूफान और आधी के बीच भी तुम्हारे भीतर सब शांत बना रहता है। सफलता हो, असफलता सुख हो, दुःख हार हो, जीत, जीवन हो, मृत्यु कुछ अंतर नहीं पड़ता। एक बात के साध लेने से, कि तुम पीछे हटना सीख गए, कोई अंतर नहीं पड़ता। इसे तुम थोड़ा जीवन में इसकी कोशिश करो। यह बड़ी अनूठी कोशिश है और बड़ी रसपूर्ण। और इससे ऐसा आनंद का झरना फूटने लगता है, जिसका हिसाब रखना मुश्किल है। और तुम खुद मुस्कुराओगे कि यह क्या हो रहा है। इतनी सरल थी बात!
घर आए हो, बेटे की पीठ थपथपा रहे हो, मत थपथपाओ बाप की तरह। बस, थपथपाओ नाटक के बाप की तरह। और मजा यह है कि पीठ ज्यादा अच्छी तरह थपथपाई जाएगी। बेटा ज्यादा प्रसन्न होगा। कहीं कुछ अड़चन न आएगी, कहीं कुछ तुम्हारे कारण बाधा पैदा न होगी और तुम्हारे जीवन का सार सधने लगेगा।
अगर तुम इस जीवन के मंच से ऐसे आओ और ऐसे गुजर जाओ, जैसे अभिनेता आता है मरते वक्त तुम्हारी मृत्यु तब ऐसे ही होगी, जैसे परदा गिरा उसमें कोई पीड़ा न होगी। एक कृत्य को ठीक से पूरा कर लेने का अहोभाव होगा। विश्राम की तरफ जाने की भावना होगी। और काम पूरा हो गया, परमात्मा का आह्वान आ गया, वापस लौट चलें। परदा गिर गया।
गेटे, जर्मनी का एक बहुत बड़ा नाटककार, कवि हुआ। जीवनभर नाटकों का ही अनुभव था। और गैटे धीरे-धीरे नाटक के अनुभव से ही उस गहनता को अनुभव करने लगा, जिसको हम साक्षी भाव कहते हैं। नाटक, और नाटक, और नाटक। धीरे-धीरे पूरा जीवन उसे नाटक जैसा दिखाई पड़ने लगा। जब गेटे मरा, तो उसके आखिरी शब्द ये थे। उसने आख खोली और उसने कहा कि देखो, अब परदा गिरता है!
नाटककार की भाषा थी, पर चेहरे पर बड़ी प्रसन्नता थी, बड़ा आनंद का अहोभाव था। एक काम कुशलता से पूरा हो गया परदा गिरता है। मौत तब परदे का गिरना है और जीवन तब खेल है, लीला है।
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि बस, इतना तू समझ ले भागने की जरूरत नहीं है इस महायुद्ध से। और भागकर कोई कहीं जा नहीं सकता, क्योंकि जहां भी जाओगे, वहीं युद्ध है। जीवन महासंघर्ष है। वह। छोटी मछली बड़ी मछली के द्वारा खाई जा रही है। इसका कोई उपाय नहीं है।
शायद यही परमात्मा का नियोजित खेल है, कि इस युद्ध में तुम जागो, कि इस युद्ध के भी तुम पार हो जाओ। रहो निमित्त मात्र, करने दो उसे जो उसकी मर्जी है। बहे उसकी हवाएं, तुम सिर्फ उन्हें गुजर जाने दो। तुम बाधा मत डालों, तुम बीच में मत आओ। और सब सध जाता है। बिना कहीं गए, सब मिल जाता है। एक बिना कदम उठाए, मंजिल घर आ जाती है।
साक्षी भाव कुंजी है। इसे थोड़ा प्रयोग करना शुरू करो। यह परम ध्यान है। भूल-भूल जाओ, फिर-फिर याद कर लो। भोजन कर रहे हो, ऐसे ही करो जैसे कि बस, एक नाटक में कर रहे हैं। नाटक बड़ा है माना, बड़ा लंबा है, सत्तर साल चलता है, अस्सी साल चलता है, लेकिन है नाटक और तुम्हें भी कई दफे ख्याल आ जाता है कि क्या नाटक हो रहा है! लेकिन बार-बार भूल जाते हो। स्मरण को सम्हाल नहीं पाते, सुरति को बांध नहीं पाते, छूट-छूट जाती है हाथ से। बस, छूटे न। इतना सा अगर तुम साध पाओ, एक छोटा सा शब्द, साक्षी। उसमें सारे शास्त्र समाए हैं। यह जो विराट जीवन फैला दिखाई पड़ता है, जहां भी जाओ, रास्ते में खड़े होकर देखो ऐसे ही जैसे नाटक देख रहे हो।