ओशो संबोधी दिवस
दिन 21 मार्च 1953 को संस्कारधानी जबलपुर के भंवरताल पार्क स्थित मौलश्री वृक्ष के तले आचार्य श्री रजनीश को संबोधि की परम उपलब्धि हुई थी। यही वजह है कि जो स्थान बुद्ध के अनुयायियों के लिए बोधिगया का है वही देश-दुनिया में फैले लाखों- करोड़ों ओशो प्रेमियों के लिए जबलपुर का। ओशो अपनी संबोधि के बारे में कहते हैं कि वह और कुछ नहीं, बस तुम प्रकाश बन जाते हो, तुम्हारा अंतरमन प्रकाशमान हो जाता है।
संबोधि का अर्थ है विचार और भाव से रहित शुद्ध चेतना का अनुभव। जब चेतना पूरी तरह से खाली होती है तो अपने भीतर विस्फोट सा होता है और अंतर के आकाश में ऐसा प्रकाश फैल जाता है कि जिसका कोई स्रोत, कोई कारण नहीं होता। और एक बार जब यह घटता है तो बाद में कभी वह छूटता नहीं है। जब तुम सोए रहते हो तब भी वह प्रकाश भीतर रहता है। इसके बाद हर वस्तु को तुम नई दृष्टि से देखने लगते हो।
ओशो ने स्वयं अपनी संबोधि के बारे में जो वर्णन किया है उसके अनुसार- मैं अपने निवास स्थान योगेश भवन से निकलकर नजदीक ही स्थित भंवरताल पार्क की ओर जाने लगा। मेरी वह चाल ही नई थी, ऐसा लग रहा था जैसे गुरुत्वाकर्षक समाप्त हो गया हो। मुझे लग रहा था मैं चल नहीं दौड़ रहा हूं या उड़ रहा हूं, उस समय मैं निर्भार सा था। जैसे कि कोई ऊर्जा मुझे खींच रही थी, किसी ऊर्जा ने मुझे अपने हाथों में ले लिया था।
पहली बार मैं अकेला नहीं था, पहली बार मैं एक व्यक्ति नहीं था, पहली बार बूंद सागर में गिर गई थी। अब वह सारा सागर मेरा था, मैं ही सागर बन गया था। उसकी कोई सीमा नहीं थी। मेरे भीतर ऐसी शक्ति उठ रही थी जिसके कारण मैं कुछ भी कर सकता था। वस्तुतः मैं था ही नहीं, केवल वह शक्ति वहां थी। मैं उस बगीचे के पास पहुंचा जो उस समय बंद था क्योंकि रात का लगभग एक बज रहा था। माली सो गए थे। मुझे चोरों की तरह फाटक पर चढ़कर कूदना पड़ा क्योंकि कुछ मुझे उस बगीचे की ओर खींच रहा था और मैं अपने आपको रोक नहीं सकता था। मैं तो हवा में तैर रहा था।
जैसे ही मैं भंवरताल बगीचे में घुसा वैसे ही वहां पर सब कुछ प्रकाशमान हो गया। चारों ओर भगवत्ता बरस रही थी। मैंने पहली बार वृक्षों की हरियाली और उनके भीतर के जीवन रस को देखा। समस्त बगीचा सोया हुआ था, वृक्ष भी सोए हुए थे लेकिन मुझे वह सारा बगीचा जीवंत मालूम हुआ, घास के छोटे-छोटे पत्ते भी बहुत सुंदर दिखाई दे रहे थे। मैंने चारों ओर देखा। एक पेड़-मौलश्री का़ बहुत ही ज्योतिर्मय था। उसने मुझे अपनी ओर आकर्षित किया मैंने नहीं, परमात्मा ने ही उसे चुना था। मैं जाकर उसके नीचे बैठ गया। जैसे ही मैं बैठा, सब शांत होने लगा।
समस्त विश्व से भगवत्ता बरसने लगी। यह कहना मुश्किल है कि इस स्थिति में मैं कब तक रहा। जब मैं वापस घर आया तो सुबह के चार बज रहे थे। तो इसका अर्थ है कि मैं वहां तीन घंटे रहा- वे तीन घंटे अनंत काल की तरह लग रहे थे- वह अनुभव समयातीत था, समय था ही नहीं, उस अस्पर्शित, विशुद्ध, कुंवारी, वास्तविकता की कोई सीमा नहीं थी, उसे मापा नहीं जा सकता था। उस दिन जो घटा वह मेरे भीतर अंतरधारा की तरह निरंतर बहने लगा। हर क्षण, वह बार-बार घटने लगा। हर क्षण वह चमत्कार होने लगा। उस रात से मैं अपने शरीर में नहीं रहा- मैं बस उसके इर्द-गिर्द घूमने लगा। ओशो संबोधि की प्राप्ति के बारे में सवाल किए जाने पर ठहाका लगाकर हंसते और कहते थे कि- बुद्धत्व को प्राप्त करने का प्रयास ही बेतुका था। क्योंकि हम प्रबुद्ध ही पैदा होते हैं और जो हम हैं ही उसे पाने का प्रयास हास्यास्पद ही कहा जाएगा। उपलब्ध तो उसे किया जाता है जो तुम्हारे पास नहीं है और जो तुम्हारा आंतरिक हिस्सा नहीं है किन्तु बुद्धत्व तो तुम्हारा स्वभाव है। मैं कई जन्मों से इसके लिए संघर्ष कर रहा था और मेरे जीवन का लक्ष्य सदैव यही रहा। इसे उपलब्ध करने के लिए मैंने हर संभव प्रयास किया किन्तु सदा असफल रहा। ऐसा होना ही था क्योंकि यह उपलब्धि नहीं है। यह तुम्हारा स्वभाव है इसलिए तुम इसे कैसे उपलब्ध कर सकते हो, इसको अपनी महत्वाकांक्षा भी नहीं बनाया जा सकता। मन महत्वाकांक्षी है- धन, शक्ति और प्रतिष्ठा का महत्वाकांक्षी है। फिर एक दिन जब यह बाहरी कार्यकलापों से ऊब जाता है तो इसकी महत्वाकांक्षा का लक्ष्य बन जाता है समाधि, मुक्ति, निर्वाण या परमात्मा।
महत्वाकांक्षा तो वही है, केवल उसका लक्ष्य बदल जाता है। पहले लक्ष्य बाहर था, अब वह भीतर है। किन्तु तुम्हारा रवैया नहीं बदलता, तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदलता, तुम उसी पुराने ढर्रे पर चलने वाले व्यक्ति हो। जिस दिन मुझे बुद्धत्व की प्राप्ति हुई उस दिन मेरी समझ में आया कि उपलब्ध करने को कुछ नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है, करने को कुछ नहीं है। हम दिव्य हैं ही और हम जैसे हैं वही परिपूर्ण हैं। किसी प्रकार के बदलाव की, सुधार की आवश्यकता नहीं है। परमात्मा ने किसी को भी अपूर्ण नहीं बनाया है। अगर कोई अपूर्ण आदमी दिखाई भी देता है तो उसकी अपूर्णता भी पूरी है।
ओशो ने अपने एक प्रवचन में बताया था कि 21 मार्च 1953 को संबोधि की महाघटना से ठीक सात दिन पहले मैंने अपने ऊपर काम करना छोड़ दिया था। एक क्षण ऐसा आता है जब हमें प्रयास की निरर्थकता समझ में आती है क्योंकि हर संभव प्रयास के बावजूद, हर संभव प्रयत्न के बावजूद कुछ नहीं होता।
अपनी पूरी शक्ति लगा देने के बाद भी हम कहीं नहीं पहुंचते हैं। जब करने को कुछ नहीं रह जाता तो उस असहाय अवस्था में खोज भी छूट जाती है और जिस दिन यह खोज बंद हुई, जिस दिन मैं कुछ भी नहीं खोज रहा था, जिस दिन कुछ भी घटने की अपेक्षा मैं नहीं कर रहा था- उस दिन वह घटने लगा। न जाने कहां से नई ऊर्जा उठने लगी। वह किसी स्रोत से नहीं आ रही थी। किन्तु वह सब ओर से आ रही थी। वह वृक्षों में थी, चट्टानों में थी, आकाश में थी, सूरज में थी और हवा में थी- सब जगह थी।
जिसे मैं समझ रहा था कि वह बहुत दूर है, जिसकी वर्षों से खोज में लगा हुआ था वह मेरे निकट थी, मेरे पास थी। सच तो यह है कि मैं उसे खोज रहा था जो दूर था इसलिए उसको नहीं देख पा रहा था जो निकट था। खोज हमेशा दूर की होती है और वह दूर नहीं है। मैं दूर को देख रहा था और नजदीक पर दृष्टि ही नहीं जा रही थी। आंखें तो सुदूर अंतरिक्ष पर केन्द्रित थीं, इसलिए वे उसे नहीं देख सकती थीं जो मुझे प्रतिपल घेरे हुए था। जिस दिन मेरे सारे प्रयास छूट गए उस दिन में भी नहीं रहा।
सदगुरु ओशो का संबोधि दिवस आज ही के दिन (21 मार्च 1953) ओशो को मौलश्री के वृक्ष नीचे बुध्त्व प्राप्त हुआ था।
-ःप्रेमः-
जब तुम किसी के प्रेम में उतर जाते हो--वह कोई भी हो, मित्र हो, माँ हो, पति हो, पत्नी हो, प्रेयसी हो, प्रेमी हो, बच्चा हो, बेटा हो, तुम्हारी गाय हो, तुम्हारे बगीचे में खड़ा हुआ वृक्ष हो, तुम्हारे द्वार के पास पड़ी एक चट्टान हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई भी हो-जहां भी प्रेम की रोशनी पड़ती है, उस प्रेम की रोशनी में दूसरी तरफ से प्रत्युत्तर आने शुरू हो जाते हैं। प्रेम की घड़ी में तुम अकेले नहीं रह जाते
कोई संगी है, कोई साथी है। और कोई तुम्हें इतना मूल्यवान समझता है कि तुम्हें अपना जीवन दे दे तुम किसी को इतना मूल्यवान समझते हो कि अपना जीवन दे दो। जरूर तुमने कुछ पा लिया जो जीवन से बड़ा है, जिसके सामने जीवन गंवाने योग्य हो जाता है। प्रेम का स्वर तुम्हारे जीवन में उतर आया। ऐसा दूसरे की आंखों से घूम कर, दूसरे के दर्पण से घूम कर ही तुम्हें अपनी पहली खबर मिलती है कि मैं कौन हूं। अन्यथा तुम राह के किनारे पड़े कंकड़-पत्थर हो। प्रेम के माध्यम से गुजर कर ही पहली दफे तुम्हें अपने हीरे होने का पता चलता है। और जब ऐसी प्रतीति होने लगती है कि तुम मूल्यवान हो, तो यह बड़े राज की बात है कि जितना तुम्हें एहसास होता है तुम मूल्यवान हो, उतने ही मूल्यवान तुम होने भी लगते हो। क्योंकि अंततः तो तुम परमात्मा हो अंततः तो तुम इस सारे जीवन का निचोड़ हो अंततः तो तुम्हारी चेतना नवनीत है सारे अस्तित्व का। लेकिन प्रेम से ही तुम्हें पहली खबर मिलेगी कि तुम यहां यूं ही नहीं फेंक दिए गए हो। संयोगवशात तुम नहीं हो। कोई नियति तुमसे पूरी हो रही है। अस्तित्व की तुमसे कुछ मांग है। अस्तित्व ने तुमसे कुछ चाहा है। अस्तित्व ने तुम्हें कोई चुनौती दी है। अस्तित्व ने तुम्हें यहां बनाया है ताकि तुम कुछ पूरा कर सको।
जब दो परिपक्व और समझदार व्यक्तियों के बीच प्रेम होता है तो जीवन का सबसे बड़ा विरोधाभास घटता है, एक बहुत ही सुंदर घटना घटती है- दोनों साथ-साथ होते हैं, लेकिन अपरिसीम रूप से अकेले। वे एक साथ होते हैं इतने गहरे जुड़े हुए कि वे लगभग एक हो जाते हैं। उनकी एकता से उनका निजी व्यक्तित्व ध्वस्त नहीं होता, बल्कि वास्तविक रूप से उनकी निजता बढ़ जाती है। दो समझदार व्यक्तियों के प्रेम से एक-दूसरे को अधिक स्वतंत्र रहने में मदद मिलती है। इसमें कोई राजनीति नहीं होती, कोई कूटनीति नहीं होती, एक-दूसरे पर हावी हो जाने का कोई प्रयास नहीं होता। जिससे तुम प्रेम करते हो, उसके ऊपर तुम आधिपत्य कैसे जमा सकते हो? अपरिपक्व और गैर-समझदार लोग जब प्रेम में होते हैं तो वे एक-दूसरे की स्वतंत्रता को ध्वस्त कर देते हैं, गुलामी उत्पन्न करते हैं, कैद बना देते हैं। समझदार व्यक्ति प्रेम में एक-दूसरे को स्वतंत्र रहने में सहायक होते हैं। वे हर तरह से एक-दूसरे की गुलामी को समाप्त करने में एक-दूसरे की मदद करते हैं। और जब स्वतंत्र रूप से प्रेम का प्रवाह होता है, तो इसमें सौंदर्य होता है। जब प्रेम का प्रवाह निर्भरता से होता है, तो इसमें कुरूपता होती है।
याद रखो, स्वतंत्रता का मूल्य प्रेम से अधिक है। यदि प्रेम स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा है तो प्रेम को छोड़ा जा सकता है, स्वतंत्रता को बचाना होगा। स्वतंत्रता का मूल्य अधिक है, और स्वतंत्रता के बिना तुम कभी भी खुश नहीं रह सकते यह असंभव है।
स्वतंत्रता हर स्त्री-पुरूष की आंतरिक और मूलभूत इच्छा होती है, पूर्ण स्वतंत्रता और इसी स्वतंत्रता में प्रेम के फूल खिलते हैं!